Monday, February 05, 2007

गिद्ध भोज की व्यथा कथा

गिद्ध भोज की व्यथा कथा
विपन्न बुद्धि रात के ग्यारह बजे मेरे मकान के सामने सड़क पर अँधेरे में खड़े होकर बुला रहा था, उसका आग्रह था कि मैं वहीं सड़क पर आकर उससे बात करूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि बिना किसी महत्वपूर्ण कार्य के अनावश्यक रूप से भी बिना घण्टी बजाये कमरे में घुसकर सोफा पर पसर जाने वाले विपन्न बुद्धि को आखिर क्या हो गया है, जो गेट के पास भी नहीं आ रहा है, और सड़क पर ही बात कर लेना चाहता है। मैंने अपनी इस आंतरिक परेशानी को छिपाते हुये कहा- "विपन्न बुद्धि शरीफ लोगों की तरह अन्दर आकर बैठो, बाहर अँधेरे में खड़े होकर बात करना उचित मालूम नहीं होता। और तुम एक भले आदमी न भी हो, किन्तु समाज में समझे तो जाते हो। इसीलिये अन्दर आकर बात करो।""नहीं यार! ऐसी बात नहीं है, मैं इस समय अन्दर आकर बैठने की स्थिति में नहीं हूँ, इसीलिये तो बाहर खड़ा हूँ।"- विपन्न बुद्धि ने अपनी असमर्थता बताते हुये स्पष्टीकरण दिया।
मुझे समझते हुये देर नहीं लगी कि वह निश्चित रूप से किसी शवयात्रा से लौट रहा है, क्योंकि ज्यादातर लोग किसी का अन्तिम संस्कार करके अन्य किसी के घर नहीं जाते।.....किन्तु इतनी रात में शवयात्रा का औचित्य मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने आश्चर्य से पूछा- "किसी शव यात्रा में गए थे?""अरे नहीं यार! शव यात्रा नहीं मैं एक विवाह समारोह पर आयोजित गिद्ध भोज में अपनी दुगर्ति कराकर लौटा हूँ। मेरे सारे कपड़े दाल, कढ़ी और सब्जी में लिसे हुये हैं। इस समय किसी सभ्य आदमी के घर में बैठने लायक नहीं बचा हूँ।" -विपन्न बुद्धि की बातों से गिद्ध भोज की दुर्दशा स्पष्ट झलक रही थी।" अरे तुम ने भी हद कर दी........थोड़ी सी दाल कपड़ों मे क्या लग गई, इतने शरमा रहे हो........और वह भी हम से?.......हमने तो तुम्हें कई बार कई रंगों में रँगा देखा है। मैं चुल्लू भर पानी देता हूँ.......कर लो साफ कपड़े और बैठो आराम से।"- मैंने समस्या का हल सुझाते हुये बाहर का बल्व जलाया।
सामने विपन्न बुद्धि की हालत देखकर मैं ठहाका लगाने से अपने आप को चाहते हुए भी नहीं रोक सका। वह गिद्ध भोज में बनाये जाने वाले नाना प्रकार के व्यंजनों से आपादमस्तक भिड़ा था। उसके काले बालों पर दही गिर जाने से जो सफेद लाइन बनी थी वह स्व० श्रीमती इन्दिरा गाँधी जी का स्मरण करा रही थी। लाल मिर्च युक्त सब्जी का शोरवा आँखों के पास से बह जाने से उसकी आँखें भी लाल हो गईं थीं। कपड़े तो उसके देखने लायक थे। कुर्ता के कालर से लेकर आस्तीन तक, ऊपर से नीचे तक, दाएँ से वाएँ सभी ओर कोई न कोई बफे सिस्टम का आइटम लगा था। यहाँ तक कि पाजामें के निचले हिस्से में गुलाब जामुन की चाशनी लगी होने से चींटियाँ एकत्रित हो गईं थीं। पूरी स्थिति देखने पर उसके अँधेरे में खड़े होन े का रहस्य समझ में आ गया था। इतनी बुरी हालत की तो हमने सचमुच में कल्पना नहीं की थी।हमने विपन्न बुद्धि से पूछा- देखो भाई! भोजन मुँह से लेकर हाथ तक तो कहीं भी गलती से गिर सकता है, किन्तु यह सिर के ऊपर गिरना हमारी समझ में अभी भी नहीं आ रहा है। विपन्न बुद्धि ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुये इसका रहस्य बतलाया- मित्र जब में एक टेबल पर जमीं भोज सामग्री को लूटते हुए सैकड़ों पुरुष, स्त्रियों और बच्चों के बीच में घुसा तब इस तरह के भोज की तकनीकि को अच्छी तरह से जानने वाली कद से उच्च वर्ग की एक महिला ने अपनी प्लेट को धूप गढ़ की चोटी की शक्ल में सजाकर बाहर निकलने का असफल प्रयास किया। चूँकि प्लेट को सही सलामत लेकर निकलना लगभग असम्भव था, ऐसी स्थिति में उसने मेरे सिर के ऊपर से प्लेट निकालने की कोशिश की और परिणाम आपके सामने है। सुनकर मेरी समझ में पूरी तरह से आ गया था। क्योंकि ऐसे दृश्य मैंने भी कई बार देखे थे। किन्तु पायजामे की स्थिति फिर भी रहस्यपूर्ण बनी हुई थी। पूछने पर विपन्न बुद्धि झल्लाते हुए बोला-"अब आप ही बतलाइये! ऐसी भोज प्रतियोगिता में बेचारे बच्चे क्या करें? वे हमारे पैरों के बीच से प्लेट लेकर निकल रहे थे, तब पायजामा कैसे सुरक्षित रहेगा?" हमने कहा- कोई बहुत बड़ी बात नहीं हुई है; ऐसा तो होता ही रहता है।
दूसरों की नकल करने में फजीहत तो होती ही है। हमें आखिर अमेरिका, ब्रिटेन के साथ कदम मिला-मिलाकर चलना है, तो ये सब तो भोगना ही पड़ेगा। खैर आओ तुम किसी स्टूल पर बैठ जाना, जिसे बाद में धो लिया जाएगा। हमने उसे सांत्वना देते हुए आग्रह किया।"नहीं भाई! क्या आज मुझे भूखे ही सुलाओगे? और थोड़ी देर होगी तो घर पर भी खाना नहीं मिलेगा।" विपन्न बुद्धि ने न बैठ पाने का कारण बताया।"तो इतनी दुर्गति के बाद भी भोजन नहीं कर पाये क्या?" मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई थी। "जी हाँ !.....ऐसी अपमान जनक व्यवस्था में कोई शरीफ आदमी भोजन करने के वारे में सोच भी कैसे सकता है। कहा भी गया है- 'भोजन और प्रेम एकान्त और शान्त वातावरण में करना उचित होता है। अन्यथा उसके दीर्घकालीन दुष्परिणाम होते हैं।` इसलिए मैं तो इस गिद्धभोज में कभी भोजन करता ही नहीं हूँ।
मैंने दूल्हे के बाप को बहुत समझाया था कि देखो मैं पूड़ी-पराठे कतई नहीं खाता हूँ; डॉक्टर ने साफ मना कर रखा है। परन्तु वह तो लोगों को हाथ में प्लेट लेकर भिखमंगों की तरह घूमते देखकर मजा ले रहा था। हम से भी दुराग्रह करने लगा.......बोला- "अरे आदरणीय आप जैसे लोगों के लिये ही मैंने रोटियाँ भी बनवायीं हैं। आप जाइये तो........यह स्वरुचि भोज है........अपनी रुचि के अनुसार जो अच्छा लगे; जितना लगे; खइये।" मैं उसकी बातों मे आ गया; उठा लीं दो रोटियाँ और लगा दाल तलाशने.........पर दाल तो दाल.......हाथ की रोटियाँ और प्लेट भी कहाँ गईं? मुझे नहीं मालूम.........बड़ी मुश्किल से निकल कर इस हालत में आ सका। ऊपर से चुंगी नाके के नाकेदार की तरह खड़ा दूल्हे का बाप लिफाफा लेते हुए मुस्कराकर पूछ रहा था- "खाना कैसा लगा?"हमने कहा- "दिख तो रहा है जैसा लगा है।"और विपन्न बुद्धि मन ही मन कुछ बुदबुदाते हुये शीघ्रता से अपने घर की ओर चला गया।धन्य रे गिद्ध भोज!!०००००००००००००००००००००००

0 Comments:

Post a Comment

<< Home