Friday, September 24, 2010

दुःस्वप्न

दुःस्वप्न

राम जाने क्यों हुआ दुःस्वप्न दर्शन
गीदड़ों के सामने हरि का समर्पण
नृत्य मिलकर कर रहे थर सांप नेवले
दे रहे थे गिद्ध बाहर से समर्थन

कुकरमुत्तों का अजूबा संगठन
चुनौती देने लगे लगे वटवृक्ष को
वृक्ष के गुण धर्म की चर्चा नहीं
दिखाते वे महज संख्या पक्ष को

अमावश्या की अंधेरी रात ने
ढ़क लिया था पूर्ण उजले पक्ष को
सूर्य को धिक्कारते बेशर्म जुगनू
मानकर वृह्माण्ड अपने कक्ष को

आक्रमण था तीव्र घोर असत्य का
अनसमर्थित सत्य बेवश हो चला
खो गया फिर स्वयं गहरे अंधेरों में
पर गया कुछ आश के दीपक जला

दृश्य यह ईश्वर करे दुःस्वप्न ही हो
कामना है तिक्त अनुभव क्षणिक होगा
चीरकर गहरे अनिश्चय बादलों को
प्रखर तैजस युक्त भास्कर उदित होगा

1 Comments:

At 7:15 AM, Blogger गजेन्द्र सिंह said...

अच्छी कविता ........

कृपया इसे भी पढ़े :-
क्या आप के बेटे के पास भी है सच्चे दोस्त ????

 

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