दुःस्वप्न
दुःस्वप्न
राम जाने क्यों हुआ दुःस्वप्न दर्शन
गीदड़ों के सामने हरि का समर्पण
नृत्य मिलकर कर रहे थर सांप नेवले
दे रहे थे गिद्ध बाहर से समर्थन
कुकरमुत्तों का अजूबा संगठन
चुनौती देने लगे लगे वटवृक्ष को
वृक्ष के गुण धर्म की चर्चा नहीं
दिखाते वे महज संख्या पक्ष को
अमावश्या की अंधेरी रात ने
ढ़क लिया था पूर्ण उजले पक्ष को
सूर्य को धिक्कारते बेशर्म जुगनू
मानकर वृह्माण्ड अपने कक्ष को
आक्रमण था तीव्र घोर असत्य का
अनसमर्थित सत्य बेवश हो चला
खो गया फिर स्वयं गहरे अंधेरों में
पर गया कुछ आश के दीपक जला
दृश्य यह ईश्वर करे दुःस्वप्न ही हो
कामना है तिक्त अनुभव क्षणिक होगा
चीरकर गहरे अनिश्चय बादलों को
प्रखर तैजस युक्त भास्कर उदित होगा
1 Comments:
अच्छी कविता ........
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