Friday, March 02, 2007

बूढ़ों का पढ़ना-बढ़ना आन्दोलन

बूढ़ों का पढ़ना-बढ़ना आन्दोलन
बोरी में स्लेट, पट्टियाँ और चाक के डिब्बे लिए हुए विपन्न बुद्धि कुछ घबराया हुआ सा कुछ जोर से चला जा रहा था। बैशाख की दोपहरी में लू से बचने के लिए सिर में आतंकवादी जैसा गमछा बाँधे, पसीना से तरबतर विपन्न बुद्धि को देखकर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता था कि वह कोई बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य करने जा रहा है। मुझे पता था कि विपन्न बुद्धि एक आदर्श और कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक है। वह विद्यालय और छात्रों के हित में हमेशा प्रयत्नशील रहने वाला प्राणी है। हो सकता है कि छात्रों को ग्रीष्मावकाश के लिए कोई गृहकार्य आदि देने की व्यवस्था कर रहा होगा। हमने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के उद्देश्य से पूछ ही लिया-
"क्यों भाई! अब तो स्कूल की परीक्षाएँ भी हो चुकीं। और परीक्षाफल भी आप बना चुके होंगे, फिर ये स्लेट और चाक लेकर इतनी धूप में कहाँ जा रहे हो? स्कूल को मारो गोली। अब तो पढ़ना बढ़ना आन्दोलन की बात करो। सरकार प्रौढ़ लोगों को साक्षर करने के लिए यह आन्दोलन युद्ध स्तर पर चला रही है- * 'पढ़ना-बढ़ना आन्दोलन *`।
यह कौन सा आन्दोलन है ? हमने भारत छोड़ो आन्दोलन से अँग्रेजी आन्दोलन तक अनेक आन्दोलनों के विषय में पढ़ा सुना है और उनका उद्देश्य भी समझ में आया। किन्तु यह पढ़ना बढ़ना आन्दोलन कुछ हजम नहीं हो रहा है। पढ़ने से बढ़ने का क्या सम्बन्ध? व्यवहार में तो ठीक इसका उल्टा ही दिखाई देता है। अधिकांश पढ़ने वाले शारीरिक रूप से कमजोर, आँखों पर मोटा सा चश्मा और रीढ़ की हड्डी झुकी हुई होने ये बढ़ने की बनिस्वत् सिकुड़ते से जाते हैं और बिना पढे लिखे आदमी को न जमाने की फिकर, अखबारी रोग से मुक्त, मीडिया के दुष्प्रभाव से सुरक्षित, दिन दूने रात चौगुने बढ़ते ही चले जाते हैं। आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी न पढ़ने वाले, पढ़ने वालों से आगे बढ़ रहे हैं।
अँगूठा छाप चिरौंजी लाल सरपंच बनकर अपने गाँव के उन मास्टर साहब को डाँट रहे हैं, जो उन्हें पढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया करते थे। गाँव के पढ़े लिखे युवकों के बेरोजगारी भत्तों के आवेदन पर शान से अँगूठा लगा रहे हैं। अब राबड़ी देवी को देख लीजिये। यदि वे पढ़ी लिखी होतीं तो क्या परिवार बढ़कर ग्यारह सदस्यीय हो पाता? राजनैतिक ऊँचाई भी बढ़ती ही जा रही है। विधान सभा में अच्छे अच्छे पढ़े लिखों को मार मारकर बौना बना रहीं हैं। दूसरी ओर सबसे ज्यादा पढ़े लिखे राजनेता थे, नरसिंह राव। चौदह भाषाएँ जानने के बाद भी उनका कद घटता ही गया , जब कि एक भी भाषा न जानने वालों का कद दिनोंदिन बढ़ता नजर आ रहा है। अत: पढ़ने से बढ़ने का सम्बन्ध दूर दूर तक सिद्ध नहीं होता। फिर ऊपर से आन्दोलन।
अभी तक हमने जनता को सरकार के विरुद्ध आन्दोलन करते तो देखा है, पर सरकार को आन्दोलन करते कभी नहीं देखा। सरकार को स्वयं संप्रभुता सम्पन्न होती है। उसकी इच्छा मात्र से ही सारे काम हो जाते हैं। उसे आन्दोलन करने की क्या आवश्यकता? यदि आन्दोलन करना ही था तो प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिये करना था, क्योंकि प्राथमिक शिक्षा की स्थिति आज बहुत खराब है . प्रौढ़ लोगों को साक्षर करने की............पता नहीं कैसी सनक चढ़ी है, जो कभी साक्षरता अभियान, कभी प्रौढ़ शिक्षा, औपचारिकेत्तर शिक्षा और अब यह पढ़ना बढ़ना आन्दोलन में करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी परिणाम- 'आओ लच्छू जाओ लच्छू..........., इधर कच्छू न उधर कच्छू
` ।
विपन्न बुद्धि मेरी मूढ़ता पर हँसते हुये इस आन्दोलन के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए बोला- 'आ` उपसर्ग पूर्वक 'दोलन ` शब्द से आन्दोलन की व्युत्पत्ति हुई है। जिसका अर्थ है भली प्रकार से डोलना अर्थात गतिशील होना। जैसे कोई व्यक्ति निश्चेष्ट पड़ा हो और लोग उसे मृत घोषित कर दें तो वह अपने हाथ पैर हिला डुलाकर यह सिद्ध करता है कि अभी वह मरा नहीं है। उसी प्रकार कोई संस्था जब निष्क्रिय हो जाती है और लोग उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने लगते हैं तब उसे अपने जीवित होने का प्रमाण देने के लिये आन्दोलन करना पड़ता है।
आन्दोलन के उद्देश्य भी हाथी के दाँतों की तरह दो प्रकार के होते हैं- खाने के और दिखाने के और। दिखाने के लिये कोई भी उद्देश्य बताया जा सकता है। किन्तु मुख्य उद्देश्य खाने का ही होता है। दिखाने वाला उद्देश्य पूरा हो या न हो, पर असली खाने वाला उद्देश्य तो पूरा हो जाता है। इसीलिये अक्सर देखने वाले लोग जिन आन्दोलनों को असफल मानते हैं, आन्दोलनकर्ता उसे सौ प्रतिशत सफल बताते हैं। इस भ्रान्ति का कारण लोगों को उनके असली उद्देश्य का पता न होना ही है। अब रही बात पढ़ने के साथ बढ़ने की तो उसका भी एक गूढ़ अर्थ है। सरकार ने देखा कि छोटे बच्चों को साक्षर करने पर बहुत बड़ी धनराशि व्यर्थ खर्च हो जाती है। यह काम उनके प्रौढ़ हो जाने पर आसानी से पूरा हो जाता है। इसके लिये न भवन की जरूरत, न किसी उपकरण की आवश्यकता और न शिक्षक की अनिवार्यता। इसके लिये मोहल्ले के किसी एक ऐसे प्राणी की तलाश की जाती है जो ठीक से पढ़ भी न पाया हो, और कोई काम भी न कर सकता हो। उसे बहला फुसला कर गुरु जी बनाया जाता है जो अपने चाचा, बाबा को मना मनाकर किसी चबूतरे पर इकट्ठा करते हैं और उनके कान में मंत्र फूँकते हैं- 'पढ़ो और बढ़ो `।
देखते ही देखते वह निरक्षर साक्षर होकर आगे बढ़ जाता है। इस महान कार्य के बदले गुरु जी को मात्र सौ रुपए देने का आश्वासन भर देना होता है। हालांकि गुरु जी को साक्षरता अभियान में दिखाये गये हसीन सपनों की भाँति इस अश्वासन पर भी भरोसा नहीं हो पा रहा है। फिर भी बैठे से बेगार भली उक्ति को चरितार्थ करते हुए इस पवित्र कार्य में जुट जाते हैं।
इस तरह कुछ महीनों में ही साक्षरता का प्रतिशत बढ़ जाता है। जब इतने सस्ते में ही सरकार को अपना लक्ष्य मिल जाता है तो भला वह खर्चीली प्राथमिक शिक्षा पर क्यों ध्यान दे ? अब तो बस पढ़ना बढ़ना आन्दोलन ज़िन्दाबाद।
०००

1 Comments:

At 4:35 PM, Blogger ePandit said...

शास्त्री जी नमस्कार। काफी पहले भी एकाध बारे आपके किसी ब्लॉग पर आया था आज ब्लॉगर सर्च से फिर आना हुआ। मैं यह देखकर हैरान हूँ कि आप इतने समय से हिन्दी में लिख रहे हैं लेकिन आपके विषय में हिन्दीजगत के अन्य सदस्य अधिक नहीं जानते। आपकी पोस्टें 'नारद' पर भी नहीं आती। इसके अतिरिक्त आपके ब्लॉग पर सर्वज्ञ के हिन्दी सहायता लिंक भी हैं और आपके ब्लॉगरोल में कई हिन्दी चिट्ठों के लिंक भी हैं। अतः मैं हैरान हूँ कि अब तक आप हिन्दी चिट्ठाजगत से दूर कैसे हैं।

मेरे विचार से आप अभी नेट पर अन्य हिन्दी प्रयोगकर्ताओं के संपर्क में नहीं हैं। नेट पर लगभग ४०० हिन्दी ब्लॉगरों का समूह है। हमारे हिन्दी ब्लॉगजगत में आइए। वहाँ आपकी सभी हिन्दी लिखने वालों से मुलाकात होगी। हमारी कुछ सामुदायिक साइटें हैं जिनके द्वारा हम सब आपसी संपर्क में रहते हैं। आपसे अनुरोध है कि आप इनमें शामिल हों। इससे हमारा परिवार बढ़ने के अतिरिक्त आपको भी नियमित पाठक मिलेंगे। इसके अतिरिक्त आप जैसे हिन्दी संस्कृत के विद्वानों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। मैं आपको हिन्दी जगत की कुछ साइटों के बारे में बताता हूँ।

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श्रीश शर्मा 'ई-पंडित'

 

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