विपन्नबुद्धि उवाच
Wednesday, April 27, 2011
Monday, April 11, 2011
बस करो रे बस
आज न चेते तो नहीं चलना
फिर कोनउँ को वश ।
आजादी पाकर खुशियों में हो गये हम मतवाले
घर के रखवंलों ने खुद के घर में डाके डाले।
प्रजातन्त्र की कुल उपलब्धि घपले और घोटाले
धर्म जाति गत भेद भाव के सांप भयंकर पाले।
कर लो बन्द पिटारी वन्द पिटारी वरना,
सब को लेंगे डस,,,,,
साल में आती जाती ये सरकार निठल्ली
अरबों का चूना लगवादे कब कोई जयलल्ली
तीस दलों के घमासान में दल दल हो गयी दिल्ली
सींका कब टूटेगा रस्ता देख रही है बिल्ली
इस दल दल में प्रजातन्त्र की
नैया जाये न धस,,,,,,,
ये जनसंख्या नीति राष्ट्र के हित में कैसे मानें
पढ़े लिखे तो समझे पर दारू कुट्टे क्या जानें
अटलविहारी एक और लालू की नौ सन्तानें
चोर भखारी आतंकी क्यों इसे समस्या मानें ।
एक एक महलों में हो रहे
झुग्गी में दस दस,,,,,,
गलती से अपनाइ निकम्मी मैकाले की शिक्षा
भरी बस्ता हालत खस्ता गाइड नकल परीक्षा
पढ़े लिखे आलसी अनैतिक श्रम के प्रति अनिच्छा
मालिक नहीं सभी की नौकर बन जाने इच्छा।
हो न जाये पूरी नई पीढ़ी
दिशाहीन बेवश,,,,,,,
नेता सारे कंस हो गये जनता बनी सुदामा
राजनीति अपराध जगत ने हाथ परस्पर थामा
सब सरकारी मालपुआ खा खाकर हो रहे गामा
कुछ संसद में पीछे सो रहे कुछ कर रहे हंगामा।
जनता देक बजाये ताली
संसदीय सर्कस,,,,,,,
प्रजातन्त्र की फसल खेत में नेता छुट्टा चर रहे
पढ़े लिखे अधिकारी तुम बैठे बैठे क्या कर रहे
भारत माँ के प्यारे बेटे जाने कैसे मर रहे
भाई भाई मिलजुल कर अपने घर में चोरी कर रहे।
स्वयं बनाये मकड़ जाल में
खुद ही जायें न फस,,,,,,,,,
भारत की ये भोली भाली जनता जब जागेगी
भारत माँ के एक एक पैसे का हिेसाब मांगेगी
सच कहता हूँ मार मार कर शूली पर टांगेगी
आने वाली पीढ़ी तुमको माफ न कर पायेगी।
सिर पर सौ जूते मारेगी
और गिनेगी दस,,,,
बस करो रे बस,,,,,,,