Sunday, March 04, 2007

राष्ट्र निर्माता की तथा कथा

राष्ट्र निर्माता की तथा कथा
बचपन में विपन्न बुद्धि जब अपने पिता के साथ पाठशाला में प्रवेश लेने पहुँचा था, तब किसी भी तीसमार खाँ के सामने न झुकने वाले अपने पिता को शिक्षक के श्रद्धापूर्वक चरण स्पर्श करते हुये देखकर, उसे समझ में आया कि शिक्षक कितना महान होता है। तभी से उसके बालमन में शिक्षक बनने की आकांक्षा अंकुरित हो गई थी। दुर्भाग्य से उसकी मनोकामना उस समय पूर्ण हो गई, जब उसे एक शासकीय विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्ति पत्र मिला। इस तथाकथित महान पद पर नियुक्ति को बड़ी प्रसन्नता पूर्वक सभी को बता रहा था। सोच रहा था, जीवन सार्थक हो गया। अब सारा जीवन अध्ययन और अध्यापन में व्यतीत होगा, और वह भी सम्मान के साथ। किंतु पड़ोस में रहने वाले एक सेवानिवृत्त शिक्षक ने उसके इस भ्रम को तोड़ते हुए, अपने जीवन के आधार पर उसे व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देते हुए, सफल शासकीय सेवा के लिए कुछ गुर बताते हुए कहा- विपन्न बुद्धि! शासकीय शिक्षक, कहने सुनने को तो शिक्षक होता है, परन्तु उसका पढ़ने पढ़ाने से ज्यादा वास्ता नहीं होता। उसके प्रमुख कार्य वोटर लिस्ट, राशन कार्ड बनाना, गरीबी रेखा आदि अनेक प्रकार के सर्वे कराना, पशुगणना से जनगणना तक अनेक प्रकार की गणनाएँ, घेंघा उन्मूलन से लेकर ग्राम संपर्क अभियान तक नाना प्रकार के अभियानों में भागीदारी, पढ़ना बढ़ना, पल्स पोलियो जैसे अनेक कार्यक्रमों का संचालन, बाढ़ नियन्त्रण से लेकर भीड़ नियन्त्रण तक अपनी सेवा देना, सद्भावना रैली जैसे अनेक नीरस शासकीय कार्यक्रमों में छात्रों की भीड़ जमा करना आदि अनेक अत्यावश्यक कार्य होते हैं। इन सब क्रियाकर्मों को करने के बाद वह बच्चों को पढ़ा भी दे तो किसी को कोई एतराज नहीं है, किन्तु पूर्वोक्त कार्यक्रमों में उदासीनता कतई बर्दास्त नहीं की जाती। इन आदेशों में हमेशा दण्ड संहिता की किसी न किसी धारा का उल्लेख अवश्य किया जाता है।
सफल शिक्षक दण्ड संहिता की धाराओं से भयभीत होकर इन कार्यक्रमों में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देते हैं और विद्यालय में जाकर सोते हैं। ऐसे र्क>ाव्य निष्ठ शिक्षकों को कई राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाते हैं। इस पद को किसी भी प्रकार की ऊपरी इन्कम न होने के कारण समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। कोई भी नंबर दो का काम करने में असमर्थ होने के कारण इस प्राणी को अधिकांश लोग 'बेचारा मास्टर ` कहकर दया भी प्रदर्शित करते हैं।
सारा समाज इस घोर कलयुग में भी शिक्षक से सत्यवादी हरिश्चन्द्र होने की अपेक्षा रखता है। वर्ष में एक दिन शिक्षक दिवस मनाकर उसे राष्ट्र निर्माता, पथप्रदर्शक, साक्षात् परंब्रह्म आदि कहकर खजूर पर चढ़ा दिया जाता है।
खजूर का लटका हुआ यह बुद्धिजीवी सामाजिक मर्यादा, नैतिक मानदंड और पारंपरिक आदर्शों का लबादा ओढ़कर स्वभाव के विपरीत जीता है, जिससे उसकी बुद्धि भ्रमित, मन कुण्ठित और शरीर क्षीण हो जाता है। इसे अपने चेहरे पर गम्भीरता का मुखौटा लगाना अनिवार्य होता है। इसका सार्वजनिक स्थानों पर हँसना-हँसाना, मनोरंजन करना अपराध की श्रेणी में आता है। वह स्कूल में छात्रों के, शहर में पालकों के, ऑफिस में अधिकारियों के और घर में पत्नी के प्रश्नों के उत्तर देते देते अन्त में स्वयं एक प्रश्न चिह्न बन जाता है।
इन सभी को समय समय पर इसे आँख दिखाने का अधिकार होता है। अप्रैल का महीना इस वर्ग के लिए अत्यन्त घातक होता है। एक ओर इसी माह में परीक्षा का मानसिक तनाव, और दूसरी ओर घर में गेंहूँ, चावल आदि की व्यवस्था न कर पाने से पारिवारिक कलह के कारण रक्तचाप बढ़ा रहता है। परीक्षा संबन्धी दो तरफा खतरों से आशंकित इस वर्ग को रात में डरावने सपने आते रहते हैं। दैनिक समाचार पत्रों में शिक्षकों के सस्पेंड होने व उनके साथ मारपीट होने के समाचार आग में घी का काम करते हैं। फलस्वरूप हार्ट अटैक की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। सरकारी रिकार्ड के अनुसार शिक्षक की पत्नी हमेशा बीमार पाई जाती है। मासिक खर्च के अलावा सभी आवश्यक खर्चों के लिए भविष्य निधि ही इसका एक मात्र सहारा होती है, जिसे प्राप्त करने के लिए उसे तमाम परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। इसके लिए किसी न किसी का बीमार होना आवश्यक है। ऐसे समय में उसकी अर्द्धागिंनी ही काम आती है। भविष्य निधि निष्कासन के लिए उसे चार टोल टैक्स नाकों को पार करना पड़ता है। सारा समय बच्चों के साथ बिताने के कारण इस राष्ट्र निर्माता का मानसिक स्तर दिनोंदिन कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा तरह घटता जाता है, और रिटायरमेंट तक उसकी बुद्धि, बालबुद्धि हो जाती है।
बच्चों के तरह तरह के प्रश्नों के उत्तर देते देते उसे सर्वज्ञ होने का भ्रम हो जाता है। इसलिए वह किसी भी विषय में अपनी अज्ञानता स्वीकार नहीं करता। किसी से कुछ पूछना, अपनी तौहीन समझने वाला यह गुरु, अत्यावश्यक नवीन जानकारियों से वंचित रह जाता है। फलस्वरूप वह सार्वजनिक व्यावहारिक जीवन में अपने आप को कूप मण्डूक की स्थिति में पाता है। छात्रों की गलतियाँ खोजते खोजते उसे समाज में चारों ओर गलतियाँ ही गलतियाँ नजर आने लगती हैं, जिन्हें बता बताकर वह लोगों का कोपभाजन बनता रहता है। जीवन भर ज्ञान बाँटने वाला यह राष्ट्र निर्माता अपनी उम्र के तीसरे दौर में ही समाज और परिवार से उपेक्षित होकर पंचत्व को प्राप्त हो जाता है।
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