Wednesday, March 21, 2007

संविधान समीक्षा और उनकी चिन्ता

संविधान समीक्षा और उनकी चिन्ता
जब से सरकार ने संविधान की समीक्षा करवाने का निर्णय लिया है, तभी से विपन्न बुद्धि बहुत उत्साहित है। उसका कहना है कि पचास वर्ष बाद ही सही हमारे परम विशिष्ट ग्रंथ की समीक्षा हो तो रही है। हमारे देश में पुस्तकों की समीक्षा करने की पुरानी परंपरा है। हमारे साहित्यकार गण पच्चीस पृष्ठ की पुस्तक लिखकर इतनी समीक्षाएँ करवाते हैं कि उनसे एक हजार पृष्ठों वाला समीक्षा ग्रंथ तैयार हो जाये। ऐसे देश में इतने महान संविधान जैसे ग्रंथ की समीक्षा न हो पाना एक आश्चर्य ही है। वह तो अच्छा हुआ कि एक साहित्यकार के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाने से ही यह समीक्षा का अत्यावश्यक शुभ कार्य हो पा रहा है।
कितना अच्छा होगा जब विशेषज्ञ लोग इस महान ग्रंथ के न समझ में आने वाली शब्दावली की व्याख्या करेंगे। पर एक बात समझ में नहीं आ रही कि कुछ लोग कह रहे हैं- "यदि संविधान की समीक्षा हुई तो हम ईंट से ईंट बजा देंगे।, संविधान से छेड़छाड़ हम बरदास्त नहीं करेंगे।"
कोई कह रहा है - "वर्तमान संसदीय प्रणाली की समीक्षा कतई स्वीकार नहीं।" आखिर क्या हो गया है इनको? समीक्षा से इतना डर क्यों? समीक्षा तो समीक्षा है, इसे मानना न मानना आपकी मर्जी की बात है। पर सुन तो लो, केवल समीक्षा से क्या बनने बिगड़ने वाला है? यह तो सभी जानते हैं कि यह मिली जुली सरकार जब अपना कोई विधान नहीं बना सकती, तो संविधान क्या बदल पाएगी? उन्हें अपना चुनावी वायदा तो पूरा करने दो।
हमने कहा- विपन्न बुद्धि! इतनी मोटी बात भी तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ती? विरोध करने वालों को जरा ध्यान से देखो तो उनके विरोध करने का औचित्य बिल्कुल स्पष्ट समझ में आ जाएगा। जिन लोगों ने करोड़ों का घोटाला किया है, उन्हें सारी दुनिया जानती है, पुलिस भी पहचानती है, न्यायाधीश भी जानते हैं और सरकार को भी मालूम है। फिर भी वे हेलीकॉप्टर में बैठकर शान से घूम रहे हैं। किसकी कृपा से.....? संविधान की कृपा से ही तो वे बचे हैं, क्यों कि हमारा महान उदार संविधान चाहता है कि सौ अपराधी भले ही छूट जायें पर एक भी निरपराध को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
अब समीक्षा होगी तो पता चलेगा कि सौ अपराधी तो छूट रहे हैं पर हजारों निरपराध लोगों को सजा बरावर मिल रही है। रोज सैकड़ों निरपराध लोगों की हत्या हो रही है, उनके घर जलाये जा रहे हैं, उन्हें लूटा जा रहा है। हमारा संविधान निरपराधों को सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पा रहा है। किन्तु अपराधियों की सुरक्षा के प्रति पूर्ण सजग दिखाई देता है। अभी हाल में कुछ अपराधियों द्वारा पुलिस के तेईस जवान मौत के घाट उतार दिए गए, उन्होंने क्या अपराध किया था? यहाँ संविधान चुप बैठा रहता है, पर उन हत्यारों को पुलिस थाने में लाकर एक तमाचा भी मार दे तो संविधान उनकी सुरक्षा में खड़ा हो जाएगा। हजारों काश्मीरी पंडित अतिवादियों के अमानवीय अत्याचारों से पीड़ित होकर वर्षों से दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। संविधान उनकी क्या मदद कर रहा है? किन्तु उन राक्षसों पर जरा सा भी बल प्रयोग होता है तो संविधान दृढ़ता पूर्वक उनका बचाव करता है।
हमारा संविधान पारस मणि की तरह समदर्शी है, उसे पूजा के लोहे और बधिक के लोहे में कोई भेद नहीं है। जो भी संसर्ग में आयेगा, सोना हो जाएगा। इसीलिए वह 'अर्द्ध त्यजेत स: पंडित
` की भावना से यदि मरने वाले को नहीं बचा पाता तो मारने वाले को बचा लेता है..........लुटने वाले को न बचा पाया तो लूटने वाले को बचा लेता है,............अत्याचार न रुका तो अत्याचारी को बचा लिया। कहा भी गया है- "गतं न शोचामि कृतं न मन्ये" जो काम हो चुका है उसके विषय में क्या सोचना? जैसे दिन दहाड़े एक व्यक्ति की हत्या हो गई, तो अब मरने वाला तो मर ही गया, उसके विषय में क्या सोचना? पर जो मारने वाला है उसे तो बचा ही सकते हैं। फिर सारी प्रक्रिया उसके पक्ष में ही चलती है। ऐसे में वे सारे अपराधी जिस संविधान की कृपा से समाज को ठेंगा दिखाकर अपराध में लिप्त रहते हुए 'दिन दूनी रात चौगुनी ` प्रगति कर रहे हों, वे क्यों चाहेंगे कि संविधान की समीक्षा हो?
हमारा संविधान 'वसुधैव कुटुम्बकम्` की उच्च भावना रखता है। उसकी दृष्टि में स्वदेशी और विदेशी की संकीर्णता नहीं है। वह विदेशियों को भी भारत का कर्णधार बनने की इजाजत देता है। जिसके कारण कई विदेशी नागरिक भी भारत का प्रधान मंत्री बनने का सपना देख रहे होंगे। वे जानते हैं कि भारत में विदेशी चकाचौंध के मानसिक गुलामों की संख्या भी कम नहीं है, जो विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने, विदेशी भाषा बोलने यहाँ तक कि विदेशी कुत्ता पालने में गौरव अनुभव करते हैं। और यदि पत्नी भी विदेशी मिल जाये तो फिर बात ही क्या है? ऐसे लोग क्यों चाहेंगे कि इसकी समीक्षा हो।
कुछ लोगों को डर है कि वर्तमान संसदीय प्रणाली में कोई परिवर्तन न हो जाये। यह सभी जानते हैं कि संसदीय प्रणाली एक तमाशा बन गई है। चुनाव के दौरान सैकड़ों लोगों की हत्या, मतपेटियों की लूटपाट की घटनाओं से पता चलता है कि संसदीय प्रणाली में अपराधियों का प्रवेश ही नहीं, वर्चस्व हो गया है। संसद में जूते चप्पल चलना, कपड़े फाड़ना, एक दूसरे को गालियाँ देना आम बात हो गई है। अब कोई शरीफ आदमी जिसके पास कालाधन न हो, आसपास गुण्डे बदमाश न हों वह चुनाव लड़ने का विचार नहीं कर सकता।
घोटाले इसी प्रणाली की देन हैं। अभी तक जितने घोटाले प्रकाश में आ गये हैं, उन्हीं की रकम जोड़ी जाये, वो हम विश्व बैंक को भी ऋण देने की स्थिति में होंगे।
जनता इस प्रणाली से इतनी ऊब गई है कि अब वह किन्नरों को चुनने लगी है। कम से कम उनसे कोई खतरा तो नहीं है। यदि यह प्रणाली ऐसे ही चलती रही, तो अगले कुछ वर्षों में कोई हिस्ट्रीशीडर संसद का नेता, और किन्नर विपक्ष का नेता बनेगा। इसलिए विपन्न बुद्धि! तुम्हें अधिक खुश होने की आवश्यकता नहीं है। एक तो ये लोग समीक्षा होने नहीं देंगे, और यदि हुई भी तो हमेशा के गठित आयोगों जैसा इसका भी परिणाम होगा।
०००

0 Comments:

Post a Comment

<< Home