Tuesday, March 06, 2007

शिक्षा का लोक व्यापारीकरण

शिक्षा का लोक व्यापारीकरण
भारत में पिछले पचास वर्षों में जितने नए-नए प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किए गए हैं, उतने शायद किसी और अन्य क्षेत्र में नहीं। इन नए-नए प्रयोगों के फलस्वरुप लगातार शिक्षा में गुणात्मक ह्रास होता जा रहा है। पिछले तीन चार वर्षों में कुछ ज्यादा ही नए और विचित्र प्रयोग हो रहे हैं, जिससे शिक्षा के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। इन प्रयोगों को नाम दिया गया है शिक्षा का लोक व्यापीकरण। विपन्न बुद्धि से जब लोगों ने इसका अर्थ जानना चाहा, तब उसने अपनी बुद्धि पर जोर लगाकर शून्य की ओर ताकते हुए कहा- देखिए मुझे लगता है इसमें कुछ मिस प्रिंट हो गया है। यह शिक्षा का लोक व्यापीकरण न होकर शिक्षा का लोक व्यापारीकरण होना चाहिए। पहले शिक्षा के क्षेत्र में सरकार को अपना दायित्व पूरा करने में बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता था और उससे कोई तात्कालिक लाभ भी नहीं होता था। शिक्षा एक ऐसा दूरगामी परिणाम वाला क्षेत्र है, जिसमें आज किए गए अच्छे या बुरे प्रयासों का परिणाम बीस साल बाद अगली पीढी को मिलता है। अब सरकार इतनी मूर्ख तो नहीं, कि शिक्षा में पैसा वह लगाए और लाभ अगली पीढ़ी को मिले।
इसीलिए उसने अपना धन बचाते हुए शिक्षा को व्यापार के लिए खुल्ला छोड़ दिया। इसके क्या परिणाम होंगे? अगली पीढ़ी भुगतती रहेगी। सांप का सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे। लिहाजा उसने शिक्षा का पूर्ण व्यापारीकरण कर दिया। अब कोई भी व्यक्ति एक कमरा किराये से लेकर हायर सेकेन्डरी स्कूल खोलकर बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करते हुए लाभ कमा सकता है। आज स्थिति यह है कि गली-गली शिक्षा की दूकानें खुल गईं हैं। अब किराने की दुकान वाले भी एक एक स्कूल खोल रहे हैं। पिछले दिनों हमारे एक पुराने मित्र मिले। हाल चाल पूछने पर उनने प्रसन्नता पूर्वक बताया- भैया जी की कृपा से एक देशी शराब की दुकान मिल गई है, और तीन स्कूल भी खोल लिए हैं। तीन स्कूल ? हमने आश्चर्य पूर्वक उन्हें देखा। स्कूल खोलना इतना आसान है क्या ? आप तो ऐसे कह रहे हैं, जैसे स्कूल न होकर पान की दुकान खोलने की बात कर रहे हों ? पान की दुकान तो हमें बंद करनी पड़ी। मित्र ने कुछ खिन्न होकर बताया- उनने बडे लड़के को एक अच्छी सी पान की दुकान बड़े उत्साह से लगवाई थी। किन्तु लाख प्रशिक्षण देने पर भी चिरंजीव कत्था चूना का सही अनुपात नहीं सीख सके।
परिणाम स्वरुप ग्राहक मुँह फट जाने से पैसों की जगह दस गालियाँ देकर चलते बनते। साल भर तक घाटे में दुकान चलाई परंतु आशा के विपरीत कुँवर पान लगाना न सीखा तो नहीं सीखा। मजबूरन दुकान बंद करके स्कूल खोलना पड़ा। उसी में उसे प्रिंसिपल बना दिया है। वहाँ वह सफलता पूर्वक मुनाफे में दुकान चला रहा है। आसानी से अच्छा मुनाफा देखकर हमने दो स्कूल और खोल दिए। अब एक दो कॉलेज खोलने का सोच रहे हैं। दिन में शराब की दुकान बंद रहने से वहाँ के कर्मचारी फालतू रहते थे। अब दिन में वे स्कूल में पढ़ा भी देते हैं। दूसरों को तीन सौ रुपए देने पड़ते हैं। ये दो सौ में ही मान जाते हैं। स्कूल से सस्ता और कोई धंधा नहीं है। पढ़ाने वाले शिक्षक बी.एस.सी., एम.एस.सी. प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण जितने चाहो उतने दो तीन सौ रुपए में मिल जाते हैं। केवल चपरासी को जरुर सात आठ सौ देना पड़ता है। उनका कहना है,कि हम कोई पढ़े लिखे बेरोजगार थोड़े ही हैं, जो दो तीन सौ रुपए में काम करें मित्र की बातें सुनकर शिक्षा की दुर्दशा पर चिंतित होते हुए हम दूध लेने दूध डेरी की ओर चल दिए। वहाँ देखा जहाँ भैंसें बंधती थीं, टीन शेड पर बोर्ड लगा था 'महिषासुर महा विद्यालय।
` हमें लगा, कहीं भूल से गलत जगह आ गए हैं। महाविद्यालय में दूध का डिब्बा लेकर जाना ठीक नहीं हैं। लिहाजा हम चुपचाप उलटे पाँव लौटने लगे। तभी अंदर से आवाज आई-आइए विपन्न बुद्धि जी ! लौट क्यों रहे हैं ?
ये महोदय भूतपूर्व डेरी मालिक थे जो इस समय महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर बैठे थे।
"आइये क्या? आप की डेरी कहाँ गई ? हम तो डिब्बा लेकर घूम रहे हैं।"
"क्या बताएँ भाई साहब ! दो भैंसें अचानक मर गईं, और आप तो जानते ही हैं कि भैंस खरीदना कितना मुश्किल है। इसलिए हमने डेरी तोड़कर कॉलेज खोल लिया है।" उसने कॉलेज की विशेषताएँ दर्शाने वाला पर्चा देते हुए कहा-
देखिए ये राष्ट्र का एकमात्र कॉलेज है, जहाँ इतनी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कम्प्यूटर, ज्योतिष , योग, ध्यान, जूडो-कराटे, संगीत, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई आदि अनेक प्रशिक्षणों की व्यवस्था है।
सभी छात्र छात्राओं को आखिरी पीरियड में एक गिलास भैंस का दूध निःशुल्क। सौ प्रतिशत सफलता की गारंटी। हमने पर्चे को ध्यान पूर्वक देखा, फिर भैंसों के तबेले को ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा- इस पशु शेड में बिजली पंखा, फर्नीचर कुछ भी नहीं है, इसमें छात्र बैठेंगे कैसे?
प्राचार्य जी ने हमें ऊपर से नीचे तक देखा और बोले- आप भी किस जमाने की बात कर रहे हैं ? भला कॉलेज के छात्र कक्षा में बैठते ही कब हैं ? ऊधम बाजी करना है, कहीं भी कर लेंगे। हाँ केवल परीक्षा में जरुर बैठना पड़ता है। उसकी भी हम ऐसी व्यवस्था कर देंगे कि एक ही घंटे में प्रश्न पत्र हल हो जाए। एक घंटा तो मुर्गी के दर्बे में भी बैठा जा सकता है। इन सब बातों से लगा कि सचमुच शिक्षा का लोक व्यापारीकरण हो गया है, आप भी अपना भाग्य आजमाइये और स्कूल खोल लीजिए।
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