Wednesday, March 21, 2007

संविधान समीक्षा और उनकी चिन्ता

संविधान समीक्षा और उनकी चिन्ता
जब से सरकार ने संविधान की समीक्षा करवाने का निर्णय लिया है, तभी से विपन्न बुद्धि बहुत उत्साहित है। उसका कहना है कि पचास वर्ष बाद ही सही हमारे परम विशिष्ट ग्रंथ की समीक्षा हो तो रही है। हमारे देश में पुस्तकों की समीक्षा करने की पुरानी परंपरा है। हमारे साहित्यकार गण पच्चीस पृष्ठ की पुस्तक लिखकर इतनी समीक्षाएँ करवाते हैं कि उनसे एक हजार पृष्ठों वाला समीक्षा ग्रंथ तैयार हो जाये। ऐसे देश में इतने महान संविधान जैसे ग्रंथ की समीक्षा न हो पाना एक आश्चर्य ही है। वह तो अच्छा हुआ कि एक साहित्यकार के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाने से ही यह समीक्षा का अत्यावश्यक शुभ कार्य हो पा रहा है।
कितना अच्छा होगा जब विशेषज्ञ लोग इस महान ग्रंथ के न समझ में आने वाली शब्दावली की व्याख्या करेंगे। पर एक बात समझ में नहीं आ रही कि कुछ लोग कह रहे हैं- "यदि संविधान की समीक्षा हुई तो हम ईंट से ईंट बजा देंगे।, संविधान से छेड़छाड़ हम बरदास्त नहीं करेंगे।"
कोई कह रहा है - "वर्तमान संसदीय प्रणाली की समीक्षा कतई स्वीकार नहीं।" आखिर क्या हो गया है इनको? समीक्षा से इतना डर क्यों? समीक्षा तो समीक्षा है, इसे मानना न मानना आपकी मर्जी की बात है। पर सुन तो लो, केवल समीक्षा से क्या बनने बिगड़ने वाला है? यह तो सभी जानते हैं कि यह मिली जुली सरकार जब अपना कोई विधान नहीं बना सकती, तो संविधान क्या बदल पाएगी? उन्हें अपना चुनावी वायदा तो पूरा करने दो।
हमने कहा- विपन्न बुद्धि! इतनी मोटी बात भी तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ती? विरोध करने वालों को जरा ध्यान से देखो तो उनके विरोध करने का औचित्य बिल्कुल स्पष्ट समझ में आ जाएगा। जिन लोगों ने करोड़ों का घोटाला किया है, उन्हें सारी दुनिया जानती है, पुलिस भी पहचानती है, न्यायाधीश भी जानते हैं और सरकार को भी मालूम है। फिर भी वे हेलीकॉप्टर में बैठकर शान से घूम रहे हैं। किसकी कृपा से.....? संविधान की कृपा से ही तो वे बचे हैं, क्यों कि हमारा महान उदार संविधान चाहता है कि सौ अपराधी भले ही छूट जायें पर एक भी निरपराध को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
अब समीक्षा होगी तो पता चलेगा कि सौ अपराधी तो छूट रहे हैं पर हजारों निरपराध लोगों को सजा बरावर मिल रही है। रोज सैकड़ों निरपराध लोगों की हत्या हो रही है, उनके घर जलाये जा रहे हैं, उन्हें लूटा जा रहा है। हमारा संविधान निरपराधों को सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पा रहा है। किन्तु अपराधियों की सुरक्षा के प्रति पूर्ण सजग दिखाई देता है। अभी हाल में कुछ अपराधियों द्वारा पुलिस के तेईस जवान मौत के घाट उतार दिए गए, उन्होंने क्या अपराध किया था? यहाँ संविधान चुप बैठा रहता है, पर उन हत्यारों को पुलिस थाने में लाकर एक तमाचा भी मार दे तो संविधान उनकी सुरक्षा में खड़ा हो जाएगा। हजारों काश्मीरी पंडित अतिवादियों के अमानवीय अत्याचारों से पीड़ित होकर वर्षों से दर दर की ठोकरें खा रहे हैं। संविधान उनकी क्या मदद कर रहा है? किन्तु उन राक्षसों पर जरा सा भी बल प्रयोग होता है तो संविधान दृढ़ता पूर्वक उनका बचाव करता है।
हमारा संविधान पारस मणि की तरह समदर्शी है, उसे पूजा के लोहे और बधिक के लोहे में कोई भेद नहीं है। जो भी संसर्ग में आयेगा, सोना हो जाएगा। इसीलिए वह 'अर्द्ध त्यजेत स: पंडित
` की भावना से यदि मरने वाले को नहीं बचा पाता तो मारने वाले को बचा लेता है..........लुटने वाले को न बचा पाया तो लूटने वाले को बचा लेता है,............अत्याचार न रुका तो अत्याचारी को बचा लिया। कहा भी गया है- "गतं न शोचामि कृतं न मन्ये" जो काम हो चुका है उसके विषय में क्या सोचना? जैसे दिन दहाड़े एक व्यक्ति की हत्या हो गई, तो अब मरने वाला तो मर ही गया, उसके विषय में क्या सोचना? पर जो मारने वाला है उसे तो बचा ही सकते हैं। फिर सारी प्रक्रिया उसके पक्ष में ही चलती है। ऐसे में वे सारे अपराधी जिस संविधान की कृपा से समाज को ठेंगा दिखाकर अपराध में लिप्त रहते हुए 'दिन दूनी रात चौगुनी ` प्रगति कर रहे हों, वे क्यों चाहेंगे कि संविधान की समीक्षा हो?
हमारा संविधान 'वसुधैव कुटुम्बकम्` की उच्च भावना रखता है। उसकी दृष्टि में स्वदेशी और विदेशी की संकीर्णता नहीं है। वह विदेशियों को भी भारत का कर्णधार बनने की इजाजत देता है। जिसके कारण कई विदेशी नागरिक भी भारत का प्रधान मंत्री बनने का सपना देख रहे होंगे। वे जानते हैं कि भारत में विदेशी चकाचौंध के मानसिक गुलामों की संख्या भी कम नहीं है, जो विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने, विदेशी भाषा बोलने यहाँ तक कि विदेशी कुत्ता पालने में गौरव अनुभव करते हैं। और यदि पत्नी भी विदेशी मिल जाये तो फिर बात ही क्या है? ऐसे लोग क्यों चाहेंगे कि इसकी समीक्षा हो।
कुछ लोगों को डर है कि वर्तमान संसदीय प्रणाली में कोई परिवर्तन न हो जाये। यह सभी जानते हैं कि संसदीय प्रणाली एक तमाशा बन गई है। चुनाव के दौरान सैकड़ों लोगों की हत्या, मतपेटियों की लूटपाट की घटनाओं से पता चलता है कि संसदीय प्रणाली में अपराधियों का प्रवेश ही नहीं, वर्चस्व हो गया है। संसद में जूते चप्पल चलना, कपड़े फाड़ना, एक दूसरे को गालियाँ देना आम बात हो गई है। अब कोई शरीफ आदमी जिसके पास कालाधन न हो, आसपास गुण्डे बदमाश न हों वह चुनाव लड़ने का विचार नहीं कर सकता।
घोटाले इसी प्रणाली की देन हैं। अभी तक जितने घोटाले प्रकाश में आ गये हैं, उन्हीं की रकम जोड़ी जाये, वो हम विश्व बैंक को भी ऋण देने की स्थिति में होंगे।
जनता इस प्रणाली से इतनी ऊब गई है कि अब वह किन्नरों को चुनने लगी है। कम से कम उनसे कोई खतरा तो नहीं है। यदि यह प्रणाली ऐसे ही चलती रही, तो अगले कुछ वर्षों में कोई हिस्ट्रीशीडर संसद का नेता, और किन्नर विपक्ष का नेता बनेगा। इसलिए विपन्न बुद्धि! तुम्हें अधिक खुश होने की आवश्यकता नहीं है। एक तो ये लोग समीक्षा होने नहीं देंगे, और यदि हुई भी तो हमेशा के गठित आयोगों जैसा इसका भी परिणाम होगा।
०००

Friday, March 09, 2007

समर्थन के प्रकार

समर्थन के प्रकार
आज अपने दरवाजे पर वंश परंपरागत प्रकृत शत्रु पड़ोसी विपन्न बुद्धि को खड़ा देखकर मेरे मन में तरह तरह के कुविचार दूरदर्शन के विज्ञापनों की भाँति एक एक करके आने लगे। उसे 'क्लोजअप टूथपेस्ट` के विज्ञापन के सलीम की तरह बेवजह दाँत निपोरते देख एक बार मन में आया कि एक ही घूँसे में इसे वेदान्ती बना दूँ, पर भला हो भारतीय संस्कारों का जो घर आये नितान्त धूर्त अतिथि को भी दण्डित करने से रोक देते हैं।
मैंने भी 'अतिथि देवो भव` का स्मरण कर अपने आप को संयत करते हुए कहा- "आओ विपन्न बुद्धि! ऐसी कौन सी बुरी सूचना है, जिसे देने तुम अपने पूर्व सम्बन्धों को भूलकर ब्रह्ममुहूर्त में मेरे घर आ खड़े हो।" विपन्न बुद्धि फिल्मी खलनायक की तरह अति आत्म विश्वास के साथ बोला- "मित्र मैं आज कुछ देने नहीं, कुछ माँगने आया हूँ।"
मित्र` और 'माँगने` इन दो शब्दों से किसी अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त मेरा मस्तिक कम्प्यूटर की गति से सोचने लगा। जिस व्यक्ति से दुश्मनी के अलावा कोई संबन्ध ही न रहा हो, वह 'मित्र ` कह रहा है। और जिससे गालियों के अलावा कभी कुछ आदान प्रदान ही न हुआ हो, वह माँग रहा है। अवश्य कोई षड़यन्त्र रचा जा रहा है। "भला मुझसे क्या चाहते हो, विपन्नबुद्धि! "- मैंने अपने आंतरिक भावों को घुटालों की तरह छुपाते हुए कहा।
"मैं तुम्हारा समर्थन माँगने आया हूँ।"- विपन्न बुद्धि दार्शनिक अंदाज में बोला।
"समर्थन?" तुम होश में तो हो?......अरे भाई! वर्षों से हमारी सारी राजनीति एक दूसरे के विरोध पर टिकी है, ऐसे में समर्थन की बात करना , क्या हमारे अस्तित्व को संकट में डालना नहीं होगा?
"जानता हूँ मित्र........पर मरता क्या नहीं करता।" विपन्न बुद्धि कुछ चिन्तित स्वर में बोला।
"तुमने समर्थन देने में जरा भी देरी की तो अस्तित्व तो अपना समाप्त ही समझो"
अपना मतलव, मेरा भी........मैं कुछ सावधान हो गया।
हाँ आपका भी,....हमारा असली मकान मालिक जिसे षड़यन्त्र पूर्वक हमने निर्वासित करके छलपूर्वक पूर्वजों के मकान पर अवैध कब्जा कर रखा है। अब शक्ति संपन्न होकर और संवैधानिक पत्र लेकर आ गया है। अब थोड़ी ही देर में अपना सामान फेंकने ही वाला है। "कुछ उपाय करो विपन्न बुद्धि!" मैंने अपना पसीना पोंछते हुए कहा।
"एक ही उपाय है।"- विपन्न बुद्धि आश्वस्त भाव से कहे जा रहा था।
"हम सब पन्द्रह के पन्द्रह अतिक्रमणकारी सब भेदभाव भूलकर एक हो जाएँ। सभी अपने परिवार, रिश्तेदार और मित्रों के साथ मेरे समर्थन में खड़े हो जाएँ, और मुझे मकान मालिक बना दें तो कुछ समय तक और कब्जा रह सकता है।"
मुझे लगा विपन्न बुद्धि ठीक कह रहा है। कब्जा बनाये रखने के लिए इसके अलावा कोई और उपाय भी तो नहीं है।
मैंने कहा- "विपन्न बुद्धि! मैं तुम्हें समर्थन दूँगा। बताओं कौन से प्रकार का समर्थन चाहते हो?"
"कौन सा प्रकार?....... समर्थन मतलब समर्थन। इसमें प्रकार कहाँ से आ गया।" विपन्न बुद्धि कुछ खीझते हुए बोला।
मैंने उसे समझाने के स्वर में समर्थन के प्रकारों की खेप देते हुए कहा-
समर्थन मुख्यत: पाँच प्रकार का है। मुद्दों पर आधारित समर्थन। इस प्रकार का समर्थन केवल कहने का समर्थन होता है। इसमें समर्थन देने वाला अपनी जरा सी बात न मानने पर ही समर्थन वापस ले सकता है। राजनीति में इस प्रकार के समर्थन का कोई महत्व नहीं होता।
दूसरा प्रकार है आँख मूँदकर समर्थन। इसमें समर्थन देने वाले के हित जब तक पूरे होते रहते हैं, वह समर्थन पाने वाले के दोषों को देखकर भी आँखें बन्द कर लेता है। इस प्रकार का समर्थन पुलिस का अपराधियों के प्रति अक्सर देखा जाता है।
समर्थन का तीसरा प्रकार है (बाहर से समर्थन) इस प्रकार का समर्थन राजनीति में अत्यधिक लोकप्रिय है। यह समर्थन लेने और देने वाले दोनों को ही लाभदायक होता है। बाहर से समर्थन देने वाला भीतर से सामने वाले की जड़ काटता रहता है।
अब जो समर्थन का चौथा प्रकार है। वैसे उसका नाम तो बिना शर्त समर्थन है पर हकीकत में सबसे अधिक शर्तें इसी में होती हैं। इसके अन्तर्गत समर्थन लेने वाला, समर्थन देने वाले की तमाम अच्छी बुरी शर्तें मानने को बाध्य रहता है, और बाहर से खण्डन करता रहता है। प्रेमी के लिए प्रेमिका का समर्थन इसी श्रेणी के अन्तर्गत आता है।
समर्थन का पाँचवाँ और अन्तिम प्रकार है खुला समर्थन। यह समर्थन अत्यन्त खतरनाक किन्तु असरदार होता है। इस प्रकार का समर्थन राजनीतिज्ञ अपने चमचों और पड़ोसी देश अपने आतंकवादियों को देते हैं।
विपन्न बुद्धि मेरी बातों को सत्य नारायण की कथा की भाँति श्रद्धा पूर्वक सुनता रहा और फिर कुछ सोचते हुए बोला-
"जनाब! आप मुझे बाहर से बिना शर्त समर्थन दीजिए। मुझे आपकी सारी शर्तें स्वीकार हैं।" कहकर चला गया।
०००

Tuesday, March 06, 2007

शिक्षा का लोक व्यापारीकरण

शिक्षा का लोक व्यापारीकरण
भारत में पिछले पचास वर्षों में जितने नए-नए प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किए गए हैं, उतने शायद किसी और अन्य क्षेत्र में नहीं। इन नए-नए प्रयोगों के फलस्वरुप लगातार शिक्षा में गुणात्मक ह्रास होता जा रहा है। पिछले तीन चार वर्षों में कुछ ज्यादा ही नए और विचित्र प्रयोग हो रहे हैं, जिससे शिक्षा के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है। इन प्रयोगों को नाम दिया गया है शिक्षा का लोक व्यापीकरण। विपन्न बुद्धि से जब लोगों ने इसका अर्थ जानना चाहा, तब उसने अपनी बुद्धि पर जोर लगाकर शून्य की ओर ताकते हुए कहा- देखिए मुझे लगता है इसमें कुछ मिस प्रिंट हो गया है। यह शिक्षा का लोक व्यापीकरण न होकर शिक्षा का लोक व्यापारीकरण होना चाहिए। पहले शिक्षा के क्षेत्र में सरकार को अपना दायित्व पूरा करने में बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता था और उससे कोई तात्कालिक लाभ भी नहीं होता था। शिक्षा एक ऐसा दूरगामी परिणाम वाला क्षेत्र है, जिसमें आज किए गए अच्छे या बुरे प्रयासों का परिणाम बीस साल बाद अगली पीढी को मिलता है। अब सरकार इतनी मूर्ख तो नहीं, कि शिक्षा में पैसा वह लगाए और लाभ अगली पीढ़ी को मिले।
इसीलिए उसने अपना धन बचाते हुए शिक्षा को व्यापार के लिए खुल्ला छोड़ दिया। इसके क्या परिणाम होंगे? अगली पीढ़ी भुगतती रहेगी। सांप का सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे। लिहाजा उसने शिक्षा का पूर्ण व्यापारीकरण कर दिया। अब कोई भी व्यक्ति एक कमरा किराये से लेकर हायर सेकेन्डरी स्कूल खोलकर बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करते हुए लाभ कमा सकता है। आज स्थिति यह है कि गली-गली शिक्षा की दूकानें खुल गईं हैं। अब किराने की दुकान वाले भी एक एक स्कूल खोल रहे हैं। पिछले दिनों हमारे एक पुराने मित्र मिले। हाल चाल पूछने पर उनने प्रसन्नता पूर्वक बताया- भैया जी की कृपा से एक देशी शराब की दुकान मिल गई है, और तीन स्कूल भी खोल लिए हैं। तीन स्कूल ? हमने आश्चर्य पूर्वक उन्हें देखा। स्कूल खोलना इतना आसान है क्या ? आप तो ऐसे कह रहे हैं, जैसे स्कूल न होकर पान की दुकान खोलने की बात कर रहे हों ? पान की दुकान तो हमें बंद करनी पड़ी। मित्र ने कुछ खिन्न होकर बताया- उनने बडे लड़के को एक अच्छी सी पान की दुकान बड़े उत्साह से लगवाई थी। किन्तु लाख प्रशिक्षण देने पर भी चिरंजीव कत्था चूना का सही अनुपात नहीं सीख सके।
परिणाम स्वरुप ग्राहक मुँह फट जाने से पैसों की जगह दस गालियाँ देकर चलते बनते। साल भर तक घाटे में दुकान चलाई परंतु आशा के विपरीत कुँवर पान लगाना न सीखा तो नहीं सीखा। मजबूरन दुकान बंद करके स्कूल खोलना पड़ा। उसी में उसे प्रिंसिपल बना दिया है। वहाँ वह सफलता पूर्वक मुनाफे में दुकान चला रहा है। आसानी से अच्छा मुनाफा देखकर हमने दो स्कूल और खोल दिए। अब एक दो कॉलेज खोलने का सोच रहे हैं। दिन में शराब की दुकान बंद रहने से वहाँ के कर्मचारी फालतू रहते थे। अब दिन में वे स्कूल में पढ़ा भी देते हैं। दूसरों को तीन सौ रुपए देने पड़ते हैं। ये दो सौ में ही मान जाते हैं। स्कूल से सस्ता और कोई धंधा नहीं है। पढ़ाने वाले शिक्षक बी.एस.सी., एम.एस.सी. प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण जितने चाहो उतने दो तीन सौ रुपए में मिल जाते हैं। केवल चपरासी को जरुर सात आठ सौ देना पड़ता है। उनका कहना है,कि हम कोई पढ़े लिखे बेरोजगार थोड़े ही हैं, जो दो तीन सौ रुपए में काम करें मित्र की बातें सुनकर शिक्षा की दुर्दशा पर चिंतित होते हुए हम दूध लेने दूध डेरी की ओर चल दिए। वहाँ देखा जहाँ भैंसें बंधती थीं, टीन शेड पर बोर्ड लगा था 'महिषासुर महा विद्यालय।
` हमें लगा, कहीं भूल से गलत जगह आ गए हैं। महाविद्यालय में दूध का डिब्बा लेकर जाना ठीक नहीं हैं। लिहाजा हम चुपचाप उलटे पाँव लौटने लगे। तभी अंदर से आवाज आई-आइए विपन्न बुद्धि जी ! लौट क्यों रहे हैं ?
ये महोदय भूतपूर्व डेरी मालिक थे जो इस समय महाविद्यालय के प्राचार्य पद पर बैठे थे।
"आइये क्या? आप की डेरी कहाँ गई ? हम तो डिब्बा लेकर घूम रहे हैं।"
"क्या बताएँ भाई साहब ! दो भैंसें अचानक मर गईं, और आप तो जानते ही हैं कि भैंस खरीदना कितना मुश्किल है। इसलिए हमने डेरी तोड़कर कॉलेज खोल लिया है।" उसने कॉलेज की विशेषताएँ दर्शाने वाला पर्चा देते हुए कहा-
देखिए ये राष्ट्र का एकमात्र कॉलेज है, जहाँ इतनी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कम्प्यूटर, ज्योतिष , योग, ध्यान, जूडो-कराटे, संगीत, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई आदि अनेक प्रशिक्षणों की व्यवस्था है।
सभी छात्र छात्राओं को आखिरी पीरियड में एक गिलास भैंस का दूध निःशुल्क। सौ प्रतिशत सफलता की गारंटी। हमने पर्चे को ध्यान पूर्वक देखा, फिर भैंसों के तबेले को ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा- इस पशु शेड में बिजली पंखा, फर्नीचर कुछ भी नहीं है, इसमें छात्र बैठेंगे कैसे?
प्राचार्य जी ने हमें ऊपर से नीचे तक देखा और बोले- आप भी किस जमाने की बात कर रहे हैं ? भला कॉलेज के छात्र कक्षा में बैठते ही कब हैं ? ऊधम बाजी करना है, कहीं भी कर लेंगे। हाँ केवल परीक्षा में जरुर बैठना पड़ता है। उसकी भी हम ऐसी व्यवस्था कर देंगे कि एक ही घंटे में प्रश्न पत्र हल हो जाए। एक घंटा तो मुर्गी के दर्बे में भी बैठा जा सकता है। इन सब बातों से लगा कि सचमुच शिक्षा का लोक व्यापारीकरण हो गया है, आप भी अपना भाग्य आजमाइये और स्कूल खोल लीजिए।
०००

उच्च शिक्षा भयंकरा

उच्च शिक्षा भयंकरा
आज विपन्न बुद्धि अपनी एकमात्र पुत्री के बारहवीं परीक्षा उत्तीर्ण होने पर मिठाई बाँटने के साथ-साथ गुस्से में कुछ बड़बड़ाता भी जा रहा था। मैंने पहली बार किसी को प्रसन्नता और क्रोध एक साथ प्रकट करते हुए देखा था। मुझे लगा विपन्न बुद्धि गीता के 'समत्व योग` का पालन करते हुए ' सुख-दु:खे समे कृत्वा ` का व्यावहारिक प्रदर्शन कर रहा है। किन्तु दु:ख है किस बात का? और यदि है भी तो कुछ आगे पीछे प्रकट किया जा सकता था। मैंने उसे रोकते हुए पूछा- "विपन्न बुद्धि ! पहले यह बताओ, कि तुम अपनी लड़की के पास होने पर प्रसन्न हो या दुखी?"
वह मेरी ओर घूरते हुए गुस्से में बोला- प्रसन्न भी और दुखी भी.........प्रसन्न इसलिए हूँ कि मेरी लड़की सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए भी प्रथम श्रेणी में पास हो गई है, और दुखी इसलिए कि अब वह कॉलेज में एडमीशन लेने की जिद कर रही है। कहती है, 'उच्च शिक्षा प्राप्त करूँगी, ज्ञान प्राप्त करूँगी ।
` .....अब तुम्हीं बताओ ! कॉलेज से ज्ञान का क्या सम्बन्ध ? यदि सचमुच कालेज से ज्ञान मिलता होता तो भारत के प्रत्येक घर में हाथ पर हाथ धरे बैठा तथाकथित ज्ञानी अपने परिवार के लिए सिरदर्द नहीं बनता। अब उसे कौन समझाये कि कालेज में शिक्षा और ज्ञान के अलावा सब कुछ मिलता है। वहाँ इन्ट्रोडक्शन के नाम पर बेशर्मी, रैकिंग के नाम पर यातना , खुलेपन के नाम पर अभद्रता , फ्रेंकनेस के नाम पर सेक्स स्केण्डल , फ्रीडम के नाम पर स्वच्छन्दता, आधुनिकता के नाम पर ऊटपटाँग वेशभूषा , इमेज के नाम पर अकर्मण्यता, मनोरंजन के नाम पर बेहूदा हरकतें , कल्चर के नाम पर अमर्यादित आचरण , जागृति के नाम पर उद्दण्डता , फैशन के नाम पर नग्नता, पुरुषार्थ के नाम पर हत्या और बलात्कार ! क्या नहीं मिलता कॉलेज में?
विपन्न बुद्धि लगभग एक ही साँस में कॉलेज के समस्त गुणों का बखान ऐसे कर गया जैसे कोई औषधि विक्रेता अपनी दवाई का विज्ञापन देता हो।
तुम्हारी बुद्धि सचमुच विपन्न हो गई है विपन्न बुद्धि ! जो तुम हमारे महा पवित्र महाविद्यालय के विषय में ऊल जलूल बातें कह रहे हो। महाविद्यालय तो महान विद्याओं के केन्द्र होते हैं। यहाँ कोई महाविद्वान बनता है तो कोई महा मूर्ख, सारे महारथी यहीं से निकलते हैं महादानी से लेकर महाचोर तक, महा चतुर से लेकर महाधूर्त तक, सारी महान मूर्तियाँ यहीं गढ़ी जाती हैं। 'नो नॉलिज विदाउट कॉलेज` सूक्ति तो तुमने सुनी ही होगी ? सरकार ने अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा फालतू तो नहीं लगाया ? कुछ न कुछ तो होता ही होगा वहाँ? रही बात उन गुणों की जिन्हें तुम दुर्गुण मान रहे हो।
इक्कीसवीं सदी में जीने के लिए अत्यावश्यक योग्यता है। अब नौकरी के तो कोई चान्स हैं नहीं और व्यापार सँभाल लिया है बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने, बची अब कृषि तो उसमें लगती है मेहनत; और पढ़े लिखे लोगों को मेहनत करना बर्जित है। लिहाजा अब एक ही व्यवसाय बच जाता है वह है राजनीति। राजनीति भारत का सर्वश्रेष्ठ लाभप्रद व्यवसाय बन गया है। धीरे धीरे इसका लोक व्यापीकरण भी हो रहा है। अब वह दिल्ली से लेकर गाँव के मुहल्ले तक पहुँच कर खूब फल फूल रहा है। इस व्यवसाय में बुद्धिजीवियो से लेकर गुण्डे, बदमाशों तक, फिल्मी कलाकारों से लेकर संन्यासियों तक सभी को समान अवसर प्राप्त है। और इस व्यवसाय में पूर्ण सफलता के लिए उपर्युक्त गुणों का होना अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिए सरकार ने महाविद्यालयों में तोड़ फोड़, हड़ताल प्रदर्शन, मारपीट आदि पाठ्येतर क्रियाकलापों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की है। तुम भी अपनी पुत्री को बेहिचक कालेज में प्रवेश दिलाओ विपन्न बुद्धि। अन्यथा वह इक्कीसवीं सदी में कहीं की नहीं रहेगी।
विपन्न बुद्धि कुछ सोचते हुए बोला मित्र ! कॉलेज में पढ़ने का तो नहीं किन्तु एक बार जाने का मौका मुझे भी मिला है। तभी से कान पकड़ लिए कि भविष्य में ट्रक के नीचे घुस जाऊँ पर कालेज के फाटक के अन्दर नहीं जाऊँगा।
एक बार पड़ोस के लड़के को बुलाने कालेज गया था, वहाँ का हाल देखा तो मुझे लगा कि मैं किसी बहुत गलत जगह आ गया हूँ। कोई जोर जोर से सीटी बजा रहा था, कोई बेहूदा गाने गा रहा था, कोई मुझे देख कर कह रहा था 'तेरा क्या होगा कालिया ?
`। एक दादा किस्म का बड़े-बड़े बालों वाला, जिसे अन्य लड़के सीनियर कह रहे थे। फिल्मी स्टाइल में सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा था, और जूनियर छात्रों की पिटाई कर रहा था। मैंने पूछ लिया- " भैया क्यों मारते हो उस लड़के को ? फिर क्या था..........मेरी ऐसी फजीहत हुई कि बताने योग्य नहीं है। तभी से मैं कालेज को उपद्रवियों की भीड़ इकट्ठा करने वाला कारखाना मानता हूँ। उपद्रव तक तो ठीक था पर आजकल तो प्रतिदिन महाविद्यालय परिसरों में हत्या और आत्महत्या के समाचार आ रहे हैं। कुछ दिन पहले एक महाविद्यालय परिसर में कुछ ज्ञानी महापुरुषों ने एक छात्रा को अपनी जीप से कुचल अपने पराक्रम का परिचय दिया था, और अभी हाल में बैतूल से राजधानी में ज्ञान प्राप्त करने गई स्मिता चन्देल की रहस्यमय मृत्यु हो गई। सरकार सिर्फ यह जानने में रुचि रखती है कि हत्या है या आत्म हत्या ? और पुलिस तो आत्महत्या सिद्ध करने में माहिर है ही। अब वह चाहे हत्या हो या आत्महत्या, बेचारे उन माँ बाप के लिए तो बेटी की हत्या ही है न?
ऐसे में तुम ही बताओ मैं अपनी इकलौती बेटी को मौत के मुँह में कैसे ढकेल दूँ।
०००

Sunday, March 04, 2007

राष्ट्र निर्माता की तथा कथा

राष्ट्र निर्माता की तथा कथा
बचपन में विपन्न बुद्धि जब अपने पिता के साथ पाठशाला में प्रवेश लेने पहुँचा था, तब किसी भी तीसमार खाँ के सामने न झुकने वाले अपने पिता को शिक्षक के श्रद्धापूर्वक चरण स्पर्श करते हुये देखकर, उसे समझ में आया कि शिक्षक कितना महान होता है। तभी से उसके बालमन में शिक्षक बनने की आकांक्षा अंकुरित हो गई थी। दुर्भाग्य से उसकी मनोकामना उस समय पूर्ण हो गई, जब उसे एक शासकीय विद्यालय में शिक्षक के पद पर नियुक्ति पत्र मिला। इस तथाकथित महान पद पर नियुक्ति को बड़ी प्रसन्नता पूर्वक सभी को बता रहा था। सोच रहा था, जीवन सार्थक हो गया। अब सारा जीवन अध्ययन और अध्यापन में व्यतीत होगा, और वह भी सम्मान के साथ। किंतु पड़ोस में रहने वाले एक सेवानिवृत्त शिक्षक ने उसके इस भ्रम को तोड़ते हुए, अपने जीवन के आधार पर उसे व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देते हुए, सफल शासकीय सेवा के लिए कुछ गुर बताते हुए कहा- विपन्न बुद्धि! शासकीय शिक्षक, कहने सुनने को तो शिक्षक होता है, परन्तु उसका पढ़ने पढ़ाने से ज्यादा वास्ता नहीं होता। उसके प्रमुख कार्य वोटर लिस्ट, राशन कार्ड बनाना, गरीबी रेखा आदि अनेक प्रकार के सर्वे कराना, पशुगणना से जनगणना तक अनेक प्रकार की गणनाएँ, घेंघा उन्मूलन से लेकर ग्राम संपर्क अभियान तक नाना प्रकार के अभियानों में भागीदारी, पढ़ना बढ़ना, पल्स पोलियो जैसे अनेक कार्यक्रमों का संचालन, बाढ़ नियन्त्रण से लेकर भीड़ नियन्त्रण तक अपनी सेवा देना, सद्भावना रैली जैसे अनेक नीरस शासकीय कार्यक्रमों में छात्रों की भीड़ जमा करना आदि अनेक अत्यावश्यक कार्य होते हैं। इन सब क्रियाकर्मों को करने के बाद वह बच्चों को पढ़ा भी दे तो किसी को कोई एतराज नहीं है, किन्तु पूर्वोक्त कार्यक्रमों में उदासीनता कतई बर्दास्त नहीं की जाती। इन आदेशों में हमेशा दण्ड संहिता की किसी न किसी धारा का उल्लेख अवश्य किया जाता है।
सफल शिक्षक दण्ड संहिता की धाराओं से भयभीत होकर इन कार्यक्रमों में अपनी पूरी ऊर्जा झोंक देते हैं और विद्यालय में जाकर सोते हैं। ऐसे र्क>ाव्य निष्ठ शिक्षकों को कई राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाते हैं। इस पद को किसी भी प्रकार की ऊपरी इन्कम न होने के कारण समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। कोई भी नंबर दो का काम करने में असमर्थ होने के कारण इस प्राणी को अधिकांश लोग 'बेचारा मास्टर ` कहकर दया भी प्रदर्शित करते हैं।
सारा समाज इस घोर कलयुग में भी शिक्षक से सत्यवादी हरिश्चन्द्र होने की अपेक्षा रखता है। वर्ष में एक दिन शिक्षक दिवस मनाकर उसे राष्ट्र निर्माता, पथप्रदर्शक, साक्षात् परंब्रह्म आदि कहकर खजूर पर चढ़ा दिया जाता है।
खजूर का लटका हुआ यह बुद्धिजीवी सामाजिक मर्यादा, नैतिक मानदंड और पारंपरिक आदर्शों का लबादा ओढ़कर स्वभाव के विपरीत जीता है, जिससे उसकी बुद्धि भ्रमित, मन कुण्ठित और शरीर क्षीण हो जाता है। इसे अपने चेहरे पर गम्भीरता का मुखौटा लगाना अनिवार्य होता है। इसका सार्वजनिक स्थानों पर हँसना-हँसाना, मनोरंजन करना अपराध की श्रेणी में आता है। वह स्कूल में छात्रों के, शहर में पालकों के, ऑफिस में अधिकारियों के और घर में पत्नी के प्रश्नों के उत्तर देते देते अन्त में स्वयं एक प्रश्न चिह्न बन जाता है।
इन सभी को समय समय पर इसे आँख दिखाने का अधिकार होता है। अप्रैल का महीना इस वर्ग के लिए अत्यन्त घातक होता है। एक ओर इसी माह में परीक्षा का मानसिक तनाव, और दूसरी ओर घर में गेंहूँ, चावल आदि की व्यवस्था न कर पाने से पारिवारिक कलह के कारण रक्तचाप बढ़ा रहता है। परीक्षा संबन्धी दो तरफा खतरों से आशंकित इस वर्ग को रात में डरावने सपने आते रहते हैं। दैनिक समाचार पत्रों में शिक्षकों के सस्पेंड होने व उनके साथ मारपीट होने के समाचार आग में घी का काम करते हैं। फलस्वरूप हार्ट अटैक की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। सरकारी रिकार्ड के अनुसार शिक्षक की पत्नी हमेशा बीमार पाई जाती है। मासिक खर्च के अलावा सभी आवश्यक खर्चों के लिए भविष्य निधि ही इसका एक मात्र सहारा होती है, जिसे प्राप्त करने के लिए उसे तमाम परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। इसके लिए किसी न किसी का बीमार होना आवश्यक है। ऐसे समय में उसकी अर्द्धागिंनी ही काम आती है। भविष्य निधि निष्कासन के लिए उसे चार टोल टैक्स नाकों को पार करना पड़ता है। सारा समय बच्चों के साथ बिताने के कारण इस राष्ट्र निर्माता का मानसिक स्तर दिनोंदिन कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा तरह घटता जाता है, और रिटायरमेंट तक उसकी बुद्धि, बालबुद्धि हो जाती है।
बच्चों के तरह तरह के प्रश्नों के उत्तर देते देते उसे सर्वज्ञ होने का भ्रम हो जाता है। इसलिए वह किसी भी विषय में अपनी अज्ञानता स्वीकार नहीं करता। किसी से कुछ पूछना, अपनी तौहीन समझने वाला यह गुरु, अत्यावश्यक नवीन जानकारियों से वंचित रह जाता है। फलस्वरूप वह सार्वजनिक व्यावहारिक जीवन में अपने आप को कूप मण्डूक की स्थिति में पाता है। छात्रों की गलतियाँ खोजते खोजते उसे समाज में चारों ओर गलतियाँ ही गलतियाँ नजर आने लगती हैं, जिन्हें बता बताकर वह लोगों का कोपभाजन बनता रहता है। जीवन भर ज्ञान बाँटने वाला यह राष्ट्र निर्माता अपनी उम्र के तीसरे दौर में ही समाज और परिवार से उपेक्षित होकर पंचत्व को प्राप्त हो जाता है।
०००

Friday, March 02, 2007

बूढ़ों का पढ़ना-बढ़ना आन्दोलन

बूढ़ों का पढ़ना-बढ़ना आन्दोलन
बोरी में स्लेट, पट्टियाँ और चाक के डिब्बे लिए हुए विपन्न बुद्धि कुछ घबराया हुआ सा कुछ जोर से चला जा रहा था। बैशाख की दोपहरी में लू से बचने के लिए सिर में आतंकवादी जैसा गमछा बाँधे, पसीना से तरबतर विपन्न बुद्धि को देखकर स्पष्ट रूप से समझा जा सकता था कि वह कोई बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य करने जा रहा है। मुझे पता था कि विपन्न बुद्धि एक आदर्श और कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक है। वह विद्यालय और छात्रों के हित में हमेशा प्रयत्नशील रहने वाला प्राणी है। हो सकता है कि छात्रों को ग्रीष्मावकाश के लिए कोई गृहकार्य आदि देने की व्यवस्था कर रहा होगा। हमने अपनी जिज्ञासा शान्त करने के उद्देश्य से पूछ ही लिया-
"क्यों भाई! अब तो स्कूल की परीक्षाएँ भी हो चुकीं। और परीक्षाफल भी आप बना चुके होंगे, फिर ये स्लेट और चाक लेकर इतनी धूप में कहाँ जा रहे हो? स्कूल को मारो गोली। अब तो पढ़ना बढ़ना आन्दोलन की बात करो। सरकार प्रौढ़ लोगों को साक्षर करने के लिए यह आन्दोलन युद्ध स्तर पर चला रही है- * 'पढ़ना-बढ़ना आन्दोलन *`।
यह कौन सा आन्दोलन है ? हमने भारत छोड़ो आन्दोलन से अँग्रेजी आन्दोलन तक अनेक आन्दोलनों के विषय में पढ़ा सुना है और उनका उद्देश्य भी समझ में आया। किन्तु यह पढ़ना बढ़ना आन्दोलन कुछ हजम नहीं हो रहा है। पढ़ने से बढ़ने का क्या सम्बन्ध? व्यवहार में तो ठीक इसका उल्टा ही दिखाई देता है। अधिकांश पढ़ने वाले शारीरिक रूप से कमजोर, आँखों पर मोटा सा चश्मा और रीढ़ की हड्डी झुकी हुई होने ये बढ़ने की बनिस्वत् सिकुड़ते से जाते हैं और बिना पढे लिखे आदमी को न जमाने की फिकर, अखबारी रोग से मुक्त, मीडिया के दुष्प्रभाव से सुरक्षित, दिन दूने रात चौगुने बढ़ते ही चले जाते हैं। आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी न पढ़ने वाले, पढ़ने वालों से आगे बढ़ रहे हैं।
अँगूठा छाप चिरौंजी लाल सरपंच बनकर अपने गाँव के उन मास्टर साहब को डाँट रहे हैं, जो उन्हें पढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया करते थे। गाँव के पढ़े लिखे युवकों के बेरोजगारी भत्तों के आवेदन पर शान से अँगूठा लगा रहे हैं। अब राबड़ी देवी को देख लीजिये। यदि वे पढ़ी लिखी होतीं तो क्या परिवार बढ़कर ग्यारह सदस्यीय हो पाता? राजनैतिक ऊँचाई भी बढ़ती ही जा रही है। विधान सभा में अच्छे अच्छे पढ़े लिखों को मार मारकर बौना बना रहीं हैं। दूसरी ओर सबसे ज्यादा पढ़े लिखे राजनेता थे, नरसिंह राव। चौदह भाषाएँ जानने के बाद भी उनका कद घटता ही गया , जब कि एक भी भाषा न जानने वालों का कद दिनोंदिन बढ़ता नजर आ रहा है। अत: पढ़ने से बढ़ने का सम्बन्ध दूर दूर तक सिद्ध नहीं होता। फिर ऊपर से आन्दोलन।
अभी तक हमने जनता को सरकार के विरुद्ध आन्दोलन करते तो देखा है, पर सरकार को आन्दोलन करते कभी नहीं देखा। सरकार को स्वयं संप्रभुता सम्पन्न होती है। उसकी इच्छा मात्र से ही सारे काम हो जाते हैं। उसे आन्दोलन करने की क्या आवश्यकता? यदि आन्दोलन करना ही था तो प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के लिये करना था, क्योंकि प्राथमिक शिक्षा की स्थिति आज बहुत खराब है . प्रौढ़ लोगों को साक्षर करने की............पता नहीं कैसी सनक चढ़ी है, जो कभी साक्षरता अभियान, कभी प्रौढ़ शिक्षा, औपचारिकेत्तर शिक्षा और अब यह पढ़ना बढ़ना आन्दोलन में करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी परिणाम- 'आओ लच्छू जाओ लच्छू..........., इधर कच्छू न उधर कच्छू
` ।
विपन्न बुद्धि मेरी मूढ़ता पर हँसते हुये इस आन्दोलन के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए बोला- 'आ` उपसर्ग पूर्वक 'दोलन ` शब्द से आन्दोलन की व्युत्पत्ति हुई है। जिसका अर्थ है भली प्रकार से डोलना अर्थात गतिशील होना। जैसे कोई व्यक्ति निश्चेष्ट पड़ा हो और लोग उसे मृत घोषित कर दें तो वह अपने हाथ पैर हिला डुलाकर यह सिद्ध करता है कि अभी वह मरा नहीं है। उसी प्रकार कोई संस्था जब निष्क्रिय हो जाती है और लोग उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगाने लगते हैं तब उसे अपने जीवित होने का प्रमाण देने के लिये आन्दोलन करना पड़ता है।
आन्दोलन के उद्देश्य भी हाथी के दाँतों की तरह दो प्रकार के होते हैं- खाने के और दिखाने के और। दिखाने के लिये कोई भी उद्देश्य बताया जा सकता है। किन्तु मुख्य उद्देश्य खाने का ही होता है। दिखाने वाला उद्देश्य पूरा हो या न हो, पर असली खाने वाला उद्देश्य तो पूरा हो जाता है। इसीलिये अक्सर देखने वाले लोग जिन आन्दोलनों को असफल मानते हैं, आन्दोलनकर्ता उसे सौ प्रतिशत सफल बताते हैं। इस भ्रान्ति का कारण लोगों को उनके असली उद्देश्य का पता न होना ही है। अब रही बात पढ़ने के साथ बढ़ने की तो उसका भी एक गूढ़ अर्थ है। सरकार ने देखा कि छोटे बच्चों को साक्षर करने पर बहुत बड़ी धनराशि व्यर्थ खर्च हो जाती है। यह काम उनके प्रौढ़ हो जाने पर आसानी से पूरा हो जाता है। इसके लिये न भवन की जरूरत, न किसी उपकरण की आवश्यकता और न शिक्षक की अनिवार्यता। इसके लिये मोहल्ले के किसी एक ऐसे प्राणी की तलाश की जाती है जो ठीक से पढ़ भी न पाया हो, और कोई काम भी न कर सकता हो। उसे बहला फुसला कर गुरु जी बनाया जाता है जो अपने चाचा, बाबा को मना मनाकर किसी चबूतरे पर इकट्ठा करते हैं और उनके कान में मंत्र फूँकते हैं- 'पढ़ो और बढ़ो `।
देखते ही देखते वह निरक्षर साक्षर होकर आगे बढ़ जाता है। इस महान कार्य के बदले गुरु जी को मात्र सौ रुपए देने का आश्वासन भर देना होता है। हालांकि गुरु जी को साक्षरता अभियान में दिखाये गये हसीन सपनों की भाँति इस अश्वासन पर भी भरोसा नहीं हो पा रहा है। फिर भी बैठे से बेगार भली उक्ति को चरितार्थ करते हुए इस पवित्र कार्य में जुट जाते हैं।
इस तरह कुछ महीनों में ही साक्षरता का प्रतिशत बढ़ जाता है। जब इतने सस्ते में ही सरकार को अपना लक्ष्य मिल जाता है तो भला वह खर्चीली प्राथमिक शिक्षा पर क्यों ध्यान दे ? अब तो बस पढ़ना बढ़ना आन्दोलन ज़िन्दाबाद।
०००